यूपी चुनाव में ये है कांग्रेस का मास्टरप्लान…! शीला की भी है अग्निपरीक्षा…!

नई दिल्ली। यूपी विधानसभा चुनाव के लिए सरगर्मियां लगातार बढ़ती जा रही है। चुनावों की तारीखों की घोषणा अभी नहीं हुई है लेकिन सभी पार्टियों ने अपनी तरफ से तैयारियां शुरू कर दी हैं। 2014 के लोकसभा चुनाव, दिल्ली विधानसभा चुनाव और हाल ही में संपन्न पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में करारी शिकस्त झेलने के बाद यूपी विधानसभा चुनाव के लिए कांग्रेस ने भी रणनीतिक सलाहकार प्रशांत किशोर की अगुवाई में चुनावी अभियान की शुरुआत कर दी है। राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो इस बार कांग्रेस के लिए संभावनाएं पिछले चुनाव से बेहतर है।

दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री और 75 पार की शीला दीक्षित को कांग्रेस का सीएम चेहरा बनाकर कांग्रेस ने बड़ा दांव खेला है। शीला का चेहरा मोटे तौर पर निर्विवाद रहा है शिक्षित महिला होने का फायदा मिलने की उम्मीद भी पार्टी कर रही है।गौरतलब है कि शीला का यूपी से गहरा संबंध रहा है। शीला का विवाह स्‍वाधीनता सेनानी तथा केंद्रीय मंत्रिमंडल के सदस्‍य रह चुके उमा शंकर दीक्षित के परिवार में हुआ था। यही नहींउनके पति स्व. विनोद दीक्षित भारतीय प्रशासनिक सेवा के सदस्य रहे थे। शीला दीक्षित ने नए प्रदेश अध्यक्ष राज बब्बर के साथ मोर्चा संभाल भी लिया है और माना जा रहा है कि शीला के आने से प्रदेश में संगठन को मजबूती मिलने की संभावना है। दिल्ली का सियासी अनुभव और महिला उम्मीदवारी का फायदा भी पार्टी को मिल सकता है। हालांकि देश के सबसे बड़े राज्‍य में लगभग निर्जीव पड़े संगठन और कार्यकर्ताओं में जान फूंकना उनके लिए किसी चुनौती से कम नहीं होगा।

जहां तक शीला के राजनीतिक करियर का सवाल है तो शीला 1998 से 2013 तक दिल्ली की मुख्यमंत्री रह चुकीं हैं। दिल्‍ली में सीएम पद संभालने के पहले वे केंद्र सरकार में भी मंत्री के तौर पर सेवाएं दे चुकी हैं। 1984 से 1989 तक में वे यूपी के कन्‍नौज से सांसद भी रह चुकी हैं । दिल्‍ली में मेट्रो और फ्लाईओवर के लंबे जाल उन्‍हीं के कार्यकाल की देन माना जाता है। लखनऊ से दिल्ली की दूरी लगभग 500 किमी हैलेकिन उत्तर प्रदेश की राजधानी में दिल्ली के राजनीतिक घटनाक्रम का असर रोज और लगातार पड़ता रहता है। माना जा रहा है कि दिल्ली के मुख्यमंत्री बने रहने का प्रभाव उत्तर प्रदेश के सीमावर्ती इलाकों में पड़ सकता है। शीला का विकास मॉडल यूपी के मतदाताओं को अपनी तरफ खींच सकता है।

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जहां तक जातीय समीकरणों की बात है तो कांग्रेस यूपी में ब्राह्मणराजपूत और मुस्लिम मतदाताओं को साथ लाने की कोशिश करेगी। ब्राह्मणों को अब तक परंपरागत रूप से बीजेपी का वोटबैंक माना जाता है। प्रशांत किशोर की अगुवाई में कांग्रेस इस विधानसभा चुनाव में जातीय समीकरण को भी साधने की तैयारी में है। दूसरी तरफ राज बब्बर को यूपी कांग्रेस का अध्यक्ष बनाकर कांग्रेस ने एक बिलकुल नए तरह के समीकरण के संकेत दिए हैं। पार्टी ने किसी भी पिछड़ी या दलित जाति के नेता को न चुन कर शीला को सीएम उम्मीदवार बनाकर सवर्ण मतदाताओं को यह संदेश देने की कोशिश भी की है कि सभी अन्य दल की तुलना में कांग्रेस उनके हितों को समझती है। साथ हीराज बब्बर के मुस्लिम परिवार में विवाहित होने का भी लाभ लिया जा सकता है। जाहिर है यूपी में इस बार अल्पसंख्यक और दलित मतदाताओं का रुझान मायावती की बहुजन समाज पार्टी की तरफ है। हालिया चुनावी नतीजों को देखने से साफ है कि मतदाता किसी भी त्रिशंकु विधानसभा के बजाए पूर्ण बहुमत वाली सरकार के लिए वोटिंग करते हैं।

जातीय समीकरणों के अलावा पार्टी इस बार चुनावी रणनीति पर भी गंभीर दिख रही है। प्रशांत किशोर की अगुवाई में कांग्रेस प्रदेश में अपनी स्थिति मजबूत करने में कोई कसर नहीं छोड़ रही है। यह भी लगभग तय है कि प्रियंका वाड्रा प्रदेश में व्यापक तौर से कांग्रेस का प्रचार करेंगी। यही नहीं कांग्रेस ने साफ कर दिया है कि पार्टी का लक्ष्य इस बार बीजेपी और केंद्र सरकार पर हमला बोलना नहीं बल्कि सपा सरकार की कमियों और कमजोरियों पर भी जोरदार हमला बोलना होगा।
आपको बता दें कि कांग्रेस पिछले विधानसभा में 29 सीटों पर नंबर एक थी और 31 सीटों पर दूसरे नंबर पर  थी। कांग्रेस को लगता है कि इन सीटों पर जीतना आसान है और इन्हीं सीटों पर प्रियंका गांधी की भूमिका अहम होगी। कांग्रेस इस नई टीम के जरिए त्रिशंकु विधानसभा के हालत में भी सरकार का हिस्सा बने रहना चाहती है। सूत्रों के अनुसार प्रशांत किशोर की टीम का एक प्रस्ताव यह भी है कि प्रदेश को 8 जोन में बांटा जाए और हर जोन में 10 लोकसभा सीटों को रखा जाए। फिर उस जोन में जाति-धर्म की जनसंख्या के लिहाज से अपने चेहरों को जनता के बीच ले जाया जाए। हर जोन में पार्टी की रैली के साथ साथ गांधी परिवार के नेताओं की भी रैली वहां आयोजित की जाए।

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कुछ दिनों पहले तक जीत के लिए रणनीति की तलाश करते कांग्रेस कार्यकर्ताओं में अब नई उर्जा का संचार हुआ है। कार्यकर्ताओं को लग रहा है कि अबकी बार उनके पास ऐसी टीम और समीकरण है जिससे प्रदेश में उनकी सरकार बन सकती है या भागीदार बन सकती है। जहां एक तरफ कांग्रेस प्रदेश में अपनी स्थिति मजबूत करने में कोई कसर नहीं छोड़ रही वहीं राज्य में कांग्रेस के लिए खतरे भी कम नहीं हैं। सीएम के रूप में दिल्‍ली के विकास का श्रेय अगर शीला के नाम है तो उनकी तत्‍कालीन सरकार पर विभिन्‍न घोटालों के आरोप भी लगते रहे हैं। कॉमनवेल्‍थटैंकर और मीटर घोटाले में उन पर गंभीर आरोप लगे हैं। शीला के लिए एक और नाकारात्मक पक्ष यह है कि 2013 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में महज 1 साल पुरानी आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल ने शीला को हराकर सक्रिय राजनीति से हटने पर मजबूर कर दिया था। उस समय मनमोहन सिंह के नेतृत्‍व वाली सरकार ने उन्‍हें केरल का राज्‍यपाल नियुक्‍त कर दिया लेकिन केंद्र में एनडीए सरकार के आने के बाद उन्‍हें यह पद गंवाना पड़ा था।

कांग्रेस के लिए एक और मुश्किल यह हो सकती है कि है कि यूपी में कांग्रेस के तीनों दिग्गजों (प्रभारी गुलाम नबी आज़ाद, प्रदेश अध्यक्ष राज बब्बर और सीएम पद के उम्मीदवार शीला दीक्षित) का राज्य में कोई बड़ा जनाधार नहीं है। एक तरफ जहां आजाद और बब्बर राज्यसभा सदस्य हैं तो दूसरी तरफ दीक्षित पिछले कई दशकों से दिल्ली में ही स्थापित रहीं हैं और हाल के समय में सक्रिय राजनीति से दूर रहीं हैं।राज बब्बर की तरह कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष निर्मल खत्री भी इसी तरह युवा नेता माने जाते थेऔर उनका भी किसी जातिगत या क्षेत्रीय गुट से प्रत्यक्ष जुड़ाव नहीं थालेकिन वे प्रभावी नहीं हो पाए। ऐसे में देखना होगा कि तमाम अनिश्चितताओं के बीच आने वाले समय में पार्टी प्रदेश में किस प्रकार अपने आपको स्थापित कर पाती है।  

क्यों आतंकी निशानों का केंद्र बन रहा है यूरोप? ये है असली वजह…!

14 जुलाई को जब फ्रांसीसी बस्तिल्ले डे के अवसर पर नीस शहर में समुद्र के किनारे खुशियां मना रहे थे तभी एक आतंकी ने भीड़ पर ट्रक चढ़ा दिया। गौरतलब है कि इसी दिन फ्रांस की क्राति समाप्त हुई थी और लोग इसी का जश्न मना रहे थे। घटना में 80 से अधिक लोग मारे गए। ऐसा नहीं है कि फ्रांस में यह पहला हमला है या हाल के दिनों में इस देश पर कोई हमला नहीं हुआ है। ऐसा नहीं है कि इस आयोजन के लिए सुरक्षा की कड़ी व्यवस्था नहीं थी। बल्कि यहां तक कहा जा रहा है कि इसकी सुरक्षा के लिए महीनों पहले से ही तैयारियां चल रही थी। यही नहीं इस तरह के हमलों के चलते इस साल मार्च में फ्रांस की सरकार ने तीन महीने के लिए इमरजेंसी लगा दी थी, जिसे बाद में तीन और महीनों के लिए बढ़ा दिया गया। लेकिन आतंकी हमले के सामने सुरक्षा एजेंसियों की न सिर्फ पोल खुल गई, बल्कि आतंकियों के नए तरकीब के बारे में भी पता चला। फ्रांस हमेशा से आजादी का समर्थक रहा है और यह भी एक कारण है कि वह लगातार आतंकी हमलों का केंद्र बन रहा है।
पिछले साल अभिव्यक्ति की आजादी के लिए मशहूर पत्रिका चार्ली हेब्दो पर आतंकी हमला इसी का एक उदाहरण था। आईएसआईएस इसी भावना को खत्म करना चाहता है। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार फ्रांस की पुलिस कम से कम 150 ऐसे मामलों की पड़ताल कर रही है जिनमें आतंकियों के शामिल होने का संदेह है। फ्रांस के शहर नीस में हुए आतंकी हमले के बाद अब दुनिया भर में आतंकवाद के खिलाफ नई रणनीतियों पर जोर दिया जा रहा है। हिंदू देश ही नहीं बल्कि मुस्लिम राष्ट्र भी अब बड़े पैमाने पर आतंकियों के निशाने पर हैं। सीरिया, इराक और अफगानिस्तान ही नहीं बल्कि मध्य पूर्व एशिया और अफ्रीका के कई देश इन दिनों बड़ी अशांति और संकट से जूझ रहे हैं। इसमें कोई दो राय नहीं है कि इन सब मामलों में अमेरिका की प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष भूमिका रही है। लेकिन इन देशों के लोग अमेरिका के साथ साथ फ्रांस को भी बराबर का दोषी मानते हैं। ऐसे में अब वक्त आ गया है कि न सिर्फ अमेरिका को आतंक के खिलाफ अपनी रणनीति बदलनी होगी बल्कि वैश्विक और क्षेत्रीय ताकतों को भी अपने हितों और मतभेदों से ऊपर उठ कर एक प्रभावी रणनीति पर काम करना होगा।
अंतरराष्ट्रीय मामलों के विशेषज्ञों का मानना है कि अमेरिका की नीतियों के खिलाफ ही आतंकियों में अमरीका और यूरोपीय देशों के प्रति नफरत बढ़ती जा रही है। यही नहीं आतंकी समूहों का साफ मानना है कि फ्रांस भी अन्य यूरोपीय देशों की तरह मुस्लिम देशों पर कब्जे की मुहिम में शामिल रहा है। विशेषज्ञों का यह भी मानना है कि फ्रांस ने अपने मुसलमान विरोधी आक्रामक रवैया का ही नतीजा भुगत रहा है। इराक में सद्दाम हुसैन के दौर में विनाशकारी हथियारों के झूठे बहाने कर अमेरिका और ब्रिटेन ने जो हमले किए थे, उसी से इस्लामिक स्टेट का जन्म हुआ था। यह संगठन आज पूरी दुनिया के लिए खतरा बना हुआ है। कुछ बरसों पहले तक जितना खतरनाक अल कायदा हुआ करता था आज उससे भी ज्यादा खतरनाक हो चुका है। अलकायदा से निबटना फिर भी आसान था लेकिन आईएसआईएस से निबटना काफी कठिन है।
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अलकायदा से जुड़े लोगों की पहचान कट्टरपंथी लक्षण से हो जाती थी या फिर कुछ चुनिंदा देशों पर खास नजर रखा जाता था। लेकिन ISIS से जुड़े हमलों में ऐसा कुछ भी तो नजर नहीं आता। कई बार तो हमला करने वाले ऐसे लोग हैं जो अपनी निजी जिंदगी में किसी वजह से गुस्से में हैं। इसलिए आतंकवाद से लड़ने के लिए नजरिए में फौरन बदलाव और नई सोच-समझ की दरकार है। पिछले कुछ दिनों में यह देखा गया है कि पूरे यूरोप में खासतौर पर नीदरलैंड और फ्रांस के कई युवा इराक और सीरिया जैसे देशों में जाकर लड़ रहे हैं। इससे पहले आईएसआईएस ने फ्रांसीसी युवाओं को अपने काडर में शामिल करने का एक वीडियो भी जारी किया था। हालांकि इस के तुरंत बाद स्टेडियम और उसके आसपास किए हमले में 130 लोग मार दिए। समूह में शामिल करने के बाद इन युवाओं की धार्मिक भावनाओं को भड़काकर उन्हे आतंकी बनाने की साजिश रची जा रही है और ध्रुवीकरण करने का प्रयास किया जा रहा है। साथ ही पूरे यूरोप के एक सीमारहित महाद्वीप बनने से आतंकियों के एक देश से भागकर दूसरे में चले जाने की घटनाएं बढ़ रही हैं।
मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार आईएसआईएस ने सीरिया में लड़ रहे करीब 20,000 से अधिक विदेशी लड़ाकों को स्वदेश लौटकर हर जगह तबाही मचाने को कह चुका है। और यही कारण है कि यूरोप में पिछले कुछ दिनों में लगातार आतंकी हमले हो रहे हैं। इससे पहले भी इस तरह की खबरें आ चुकी है कि फ्रांस, अमेरिका, रूस के लगातार हमलों के बाद सीरिया और इराक में इस्लामिक स्टेट को पीछे हटना पड़ा है और इससे बौखलाकर संगठन हमले तेज करने में लगा है। इन आतंकी हमलों ने समय-समय पर मजबूत से मजबूत सुरक्षा तंत्र को भी धत्ता बताया है। आईएसआईएस के खतरनाक विचारों से दुनिया भर के युवा बिना किसी ट्रेनिंग के उकसावे में आ रहे हैं और आतंक हथियारों और गोला बारूद से आगे बढ़कर वैचारिक स्तर पर आ चुका है। यह एक खतरनाक स्थिति है और ऐसे युवकों पर नजर रखना तक मुश्किल हो गया है। यूरोप में जर्मनी के बाद फ्रांस दूसरा सबसे ज्यादा मुस्लिम आबादी वाला देश है।
जहां तक आंकडो़ं की बात है तो50 लाख मुसलमान फ्रांस में रहते हैं। इनमें से ज्यादातर गरीब है, अशिक्षित हैं और हताश हैं, जिसके कारण मुस्लिम यूथ आतंकवाद का रास्ता अपना रहे हैं। यही नहीं, फ्रांस सीरिया और ईराक में अमरीकी फौज का साथ देता रहा है इसलिए आतंकी संगठन उसे बार-बार अपना निशाना बना रहे हैं। फ्रांस माली और लीबिया में भी अमरीकी सेना का साथ दे चुका है। माना जाता है कि फ्रांस ने विदेशों में जेहादियों से लड़ाई के लिए 10 हजार सैनिक भेज रखे हैं। फ्रांस के दूर-दराज इलाकों में बेरोजगारी के जानकारों का मानना है कि फ्रांस से 500 से ज्यादा मुस्लिम जेहादियों के साथ लडऩे सीरिया और ईराक तक जा चुके हैं। सीरिया और इराक से भाग कर आए नए शरणार्थी भी उन्हें उकसाते रहते हैं। आतंकी गतिविधियों पर आधारित एक अमेरिकी पत्रिका में फ्रांस आठवें नंबर पर है।
अमेरिका स्थित इंटेल सेंटर डाटाबेस दुनियाभर के आतंकी और बागी संगठनों की गतिविधियों पर नजर रखकर हर माह दस सबसे खतरनाक देशों और खतरनाक आतंकी/बागी संगठनों की सूची जारी करता है। आपको यह जानकर हैरानी होगी कि इस सूची में अब पाकिस्तान का नाम नहीं है। देश की सुरक्षा तंत्र को मजबूत बनाने के लिए सभी देशों को आर्थिक नुकसान उठाना पड़ रहा है। और इसका सीधा असर देशों की अर्थव्यवस्था पर पड़ रहा है। इससे पहले भी अमेरिका की आर्थिक वृद्धि की रफ्तार 9/11 के आतंकी हमले और अफगानिस्तान-इराक पर एकतरफा हमले के बाद थम गया था। एक अध्ययन के मुताबिक 9/11 के बाद अमेरिका की आतंकवाद विरोधी जंग में 2011 तक 3.3 खरब डॉलर यानी अमेरिका की मौजूद जीडीपी का करीब पांचवां हिस्सा खप गया।

रंग ला रहा है ‘पाग बचाऊ अभियान’, अब कावड़ियों ने की भगवान शिव को खुश करने की कोशिश!

नई दिल्ली। मिथिला के सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक विकास के लिए मिथिलालोक संस्था द्वारा शुरू किया गया पाग बचाऊ अभियान ने अब जोर पकड़ लिया है। संस्था द्वारा चलाए जा रहे इस अभियान को सभी वर्गों का साथ मिल रहा है और बड़ी संख्या में लोग इस अभियान से जुड़ रहे हैं। इस अभियान के सफलता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि सावन के इस पवित्र महीने में पाग का खुमार कांवड़ियों पर भी सर चढ़कर बोल रहा है। गौरतलब है कि सावन के महीने में भगवान शिव को जल चढ़ाना काफी पुण्य का काम माना जाता है। लाखों की संख्या में कांवड़िए देवघर जाते हैं और वहां शिव मंदिर में जल चढ़ाते हैं।

आज कल सुल्तानगंज से बैद्यनाथ धाम तक भोले बाबा को जल चढ़ाने जा रहे कांवड़ियों को एक अलग अंदाज में देखा जा रहा है। भगवान शिव को खुश करने के लिए कावड़ियों ने इस बार मिथिला की सांस्कृतिक पहचान पाग को धारण किया है। कांवड़ियों का कहना है कि वे इस पाग के जरिए भगवान शिव को यह संदेश देंगे कि भगवान कभी उगना के रूप में मिथिला की धरती पर आए थे। यही नहीं पाग पहने कांवड़ियों का कहना है कि अब मिथिला की धरती को एक बार फिर भगवान शिव की जरूरत है ताकि क्षेत्र का विकास हो सके। ऐसा माना जाता है कि मिथिला के महाकवि और शिवभक्त विद्यापति की भक्ति से खुश होकर उनके घर साक्षात भगवान शिव उगना के रूप में आए थे। यही कारण है कि मधुबना जिले के भवानीपुर गांव में उगना का प्राचीन मंदिर भी बना हुआ है और रेलवे ने वहां एक उगना हॉल्ट भी बनाया है।

रंग ला रहा है

आपको बता दें कि सुल्तानगंज में जहां से कांवड़िए जल भरते हैं वहीं पर मंगलवार से श्रावणी मेले की भी शुरुआत हुई। हर साल यहां एक मेले का आयोजन होता है, लेकिन इस बार यह आयोजन पाग कांवड़िए की वजह से खास माना जा रहा है। इस मेले का उद्घाटन बिहार के राजस्व मंत्री डॉ. मदनमोहन झा ने किया। झा ने इस मेले का उद्घाटन करते हुए कहा कि पाग मिथिला की सांस्कृतिक पहचान है और मिथिलालोक द्वारा इसे पुनर्जीवित करने का प्रयास काफी सराहनीय है। इस समारोह में कई गणमान्य लोगों सहित सैकड़ों लोगों ने पाग धारण किए।

कार्यक्रम से इतर मिथिलालोक के चेयरमैन डॉ. बीरबल झा ने पाग को मिथिला के सर्वांगीण विकास के लिए जरूरी बताया। झा ने कहा कि इससे भगवान शिव की कृपा इस क्षेत्र पर बरसेगी। पाग से मिथिलांचल की गौरव गाथा भी जुड़ी है।मिथिलालोक संस्था के चेयरमैन डॉ. बीरबल झा द्वारा लिखित और लोकप्रिय गायक विकास झा द्वारा गाए गीतों पर झूमते कांवड़ियों का पहला दल वहां पहुंच चुका है। इन गानों ने सोशल मीडिया पर भी काफी धमाल मचाया है।

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पाग बिहार के मिथलांचल क्षेत्र की सांस्कृतिक पहचान और एक विशेष पहनावा है। आपको बता दें कि  पाग टोपी और पगड़ी का मिश्रित रूप है जो बिहार के मिथिला क्षेत्र और नेपाल के तराई इलाकों में मैथिली भाषी ब्राह्मण और कर्ण कायस्थ जातियों में अमूमन मांगलिक अवसरों पर पहनने की परंपरा है। पाग मिथिला की सांस्कृतिक पहचान है और महाकवि विद्यापति की तस्वीरों में उनके सिर पर विराजित इस पाग को देखकर ही लोग समझ जाते हैं कि यह मिथिला से संबंधित हैं। सिर पर पाग पहनना मिथिला की सदियों पुरानी विरासत है, हालांकि हाल के दिनों में इसका प्रचलन धीरे-धीरे कम होता जा रहा है, जिसे आज बचाने की जरूरत महसूस होने लगी है।

इस आयोजन की औपचारिक शुरुआत मिथिलालोक संस्था की ओर से दिल्ली के आईटीओ स्थित राजेंद्र भवन में 28 फरवरी को हुई। जिसमें करीब 500 प्रवासी मैथिलों ने सिर पर पाग पहनकर राष्ट्रीय राजधानी की सड़कों पर मार्च किया था। इस मौके पर सर्वोच्च न्यायालय की पूर्व न्यायाधीश ज्ञानसुधा मिश्र ने कहा था कि इस तरह के कार्यक्रम से मिथिला से बाहर मिथिला की एक सांस्कृतिक पहचान बनेगी और यह अच्छा प्रयास है। इस आयोजन में अभिनेता नरेंद्र झा सहित कई अन्य विशिष्ट लोगों ने भाग लिया था और इस बात पर जोर दिया कि मिथिला क्षेत्र के सर्वांगीण विकास के लिए सबको एक मंच के तहत लाना बेहद जरूरी है।

यह पाग अभियान मिथिलांचल के अन्य जिलों में भी पहुंचेगा और पटना में एक भव्य कार्यक्रम का रूप लेगा।  संस्था के अनुसार इस अभियान का उद्देश्य मिथिला की सांस्कृतिक, आर्थिक और सामाजिक विकास के लिए लोगों को एकजुट करना है और मिथिला की सांस्कृतिक पहचान ‘पाग’ को वैश्विक स्तर पर लोगों के सामने पेश कर क्षेत्र की सर्वागीण विकास को सुनिश्चित की जा सके।

अगर रद्द हुई संसदीय सचिव बने विधायकों की सदस्यता, तो जाएंगी कई सरकारें, जानें क्या है ‘लाभ का पद’?

नई दिल्ली। राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी द्वारा दिल्ली सरकार के संसदीय सचिव विधेयक को लौटा देने के बाद दिल्ली में आम आदमी पार्टी  के 21 विधायकों की सदस्यता खतरे में है। दिल्ली सरकार ने इन विधायकों को संसदीय सचिव का पद दे रखा था, जो ‘लाभ के पद’ के दायरे में माना जाता है।

हालांकि 21 विधायकों की सदस्यता रद्‌द होने के बाद भी केजरीवाल सरकार बहुमत में तो रहेगी लेकिन नैतिकता के आधार पर कई तरह के सवाल खड़े होंगे। सदस्यता रद्द होने की स्थिति में यह देखना दिलचस्प होगा कि केजरीवाल इस लड़ाई को उपचुनावों के माध्यम से जनता की अदालत में लड़ना पसंद करेंगे या फिर अदालतों के जरिए? आइए जानते हैं आखिर क्या है यह पूरा विवाद…

अगर रद्द हुई संसदीय सचिव बने विधायकों की सदस्यता, तो जाएंगी कई सरकारें, जानें क्या है
 क्या है पूरा मामला?

यह पूरा मामला 13 मार्च 2015 का है जब आम आदमी पार्टी ने अपने 21 विधायकों को संसदीय सचिव बनाया था। 19 जून 2015 को प्रशांत पटेल नाम के एक वकील ने राष्ट्रपति के पास आप के इन 21 संसदीय सचिवों की सदस्यता रद्द करने के लिए आवेदन दिया। उसी दिन आनन फानन में प्रचंड बहुमत वाली केजरीवाल कैबिनेट ने संसदीय सचिवों को लाभ का पद के दायरे से बाहर करने का प्रस्ताव पास किया था। यही नहीं इसे 14 फरवरी से अमल लाने का प्रावधान किया गया ताकि संशोधन के पहले बने संसदीय सचिवों की सदस्यता को कोई आंच ना आए। इस विधेयक का नाम, दिल्ली विधानसभा सदस्य (अयोग्यता  निवारण) (संशोधन) विधेयक 2015 था।

संसदीय सचिवों की नियुक्ति के बाद इसे लाभ का पद मानते हुए इस पर  जनहित याचिका द्वारा सवाल उठाए गए और राष्ट्रपति तथा चुनाव आयोग के पास शिकायत कर इन विधायकों की सदस्यता रद्द करने की मांग की गई। इससे पहले मई 2015 में इलेक्शन कमीशन के पास एक जनहित याचिका भी डाली गई थी। प्रशांत पटेल के जनहित याचिका के जरिए यह शिकायत पहुंचने के बाद चुनाव आयोग ने 21 विधायकों को मार्च 2016 में नोटिस देकर एक-एक करके बुलाने का फैसला लिया।

इस बिल पर राष्ट्रपति मुहर लगा देते तो यह कानून का रूप ले लेता और ऐसे में चुनाव आयोग के पास कोई विकल्प नहीं होता। लेकिन सोमवार (13 जून) को राष्ट्रपति ने दिल्ली सरकार द्वारा पारित सरकार के संसदीय सचिव विधेयक को मंजूरी देने से इनकार कर दिया। जाहिर है राष्ट्रपति के इस फैसले से इन विधायकों की सदस्यता पर खतरा मंडराने लगा है और अब इस मामले पर आखिरी फैसला चुनाव आयोग को करना है। अब आयोग ही तय करेगा कि संसदीय सचिव लाभ का पद है या नहीं।

क्या कहता है कानून?

संविधान का अनुच्छेद 102(1)(a) और 191(1)(a) साफ साफ कहता है कि संसद या फिर किसी विधान सभा का कोई भी सदस्य अगर लाभ के किसी भी पद पर होता है उसकी सदस्यता जा सकती है।

यही नहीं संविधान के अनुच्छेद 104 के तहत उन पर जुर्माना और आपराधिक कार्रवाई हो सकती है जो संभव नहीं दिखता। यह लाभ का पद केंद्र और राज्य किसी भी सरकार का हो सकता है। यही नहीं दिल्ली एमएलए (रिवूमल ऑफ डिसक्वालिफिकेशन) एक्ट 1997 के अनुसार भी संसदीय सचिव को भी इस लिस्ट से बाहर नहीं रखा गया है। मतलब साफ है किइस एक्ट के आधार पर इस पद पर होना ‘लाभ का पद’ माना जाता है। दिल्ली के किसी भी कानून में संसदीय सचिव का उल्लेख नहीं है, इसीलिए विधानसभा के प्रावधानों में इनके वेतन, भत्ते सुविधाओं आदि के लिए कोई कानून नहीं है।

क्या होगा अन्य राज्यों पर असर?

जहां राजधानी दिल्ली में ही संसदीय सचिव को लाभ का पद मानते हुए मानते हुए इसे अयोग्य ठहराने की बात की जा रही है, वहीं कई और राज्य भी हैं जहां हालात कुछ ऐसे ही हैं। इन परिस्थितियों में अगर दिल्ली में विधायकों को अयोग्य करार दिया जाता है तो अन्य राज्यों में भी यह मांग उठेगी। दिल्ली में तो केजरीवाल सरकार फिर भी बहुमत में रह जाएगी, लेकिन कई राज्यों में सरकार गिरने तक की नौबत आ जाएगी, जिसमें कई बीजेपी शासित राज्य भी शामिल हैं।

बीजेपी शासित राज्य हरियाणा की अगर बात करें तो वहां 4 संसदीय सचिव का पद है। 90 विधानसभा सदस्यों वाली हरियाणा में इस समय बीजेपी के पास बीजेपी 47 विधायक है और बहुमत के लिए 45 विधायकों की जरूरत होगी। ऐसे में बीजेपी के अगर 4 विधायकों की योग्यता रद्द कर दी गई तो यकीनन सरकार अल्पमत में आ जाएगी। जहां तक पंजाब की बात करें तो 117 विधानसभा सीटों वाली इस प्रदेश में 24 संसदीय सचिव है। राज्य में इस समय बीजेपी-अकाली गठबंधन के पास 72 सीटें है और बहुमत के लिए 59 सीटें चाहिए। इस हालात में अगर 24 विधायकों की सदस्यता खत्म हुई तो सरकार के पास 48 विधायक बचेंगे और यहां भी सरकार अल्पमत में आ जाएगी।

जहां तक हिमाचल प्रदेश की बात करें तो 68 विधानसभा सीटों वाली हिमाचल में 9 संसदीय सचिव हैं। सत्ताधारी पार्टी कांग्रेस 36 विधायकों के साथ बहुमत में है लेकिन संसदीय सचिवों की योग्यता खत्म होते ही यहां भी सरकार अल्पमत में आ जाएगी। 224 विधानसभा सीटों वाली कर्नाटक में भी 10 संसदीय सचिवों (मामला हाईकोर्ट में लंबित है) को अयोग्य ठहराते ही 122 सीट जीतकर सत्ता में आई कांग्रेस के लिए मुश्किलें खड़ी हो सकती है। हालांकि 119 सीटों वाली तेलंगाना में अगर 6 संसदीय सचिवों की सदस्यता खत्म भी कर दी जाए तो सरकार अल्पमत में तो नहीं आएगी लेकिन सरकार के लिए खतरा जरूर पैदा हो जाएगी। अन्य राज्यों राजस्थान, गुजरात और मणिपुर की कहानी अलग है। यहां राज्यों में संसदीय सचिवों की नियुक्ति के लिए कानून जरूर है लेकिन संख्या निर्धारित नहीं है।

किन राज्यों में है संसदीय सचिव पद का चलन

117 सीटों वाली पंजाब विधानसभा में 24 और 90 सीटों वाली हरियाणा विधानसभा में 4 संसदीय सचिव है। हरियाणा की बीजेपी सरकार ने भी 23 जुलाई 2015 को चार मुख्‍य संसदीय सचिवों की नियुक्‍त‍ि की थी। जहां तक सुविधाओं की बात करें तो पंजाब में इन्हे हर महीने 40 हजार रुपए की सैलरी और हरियाणा में इनकी सैलरी 50 हजार रुपए है। यही नहीं सैलरी के साथ साथ कार, आवास, पीए और चपरासी सहित कई अन्य सुविधाएं भी इन सद्स्यों को दी जाती है। इन सबके अलावा पंजाब में 25 हजार रुपये का चुनाव क्षेत्र भत्ता और 3 लाख का वार्षिक एलटीसी के साथ आवास, फोन और कई तरह के भत्ते दिए जाते हैं।

वहीं हरियाणा में हर महीने चुनावी क्षेत्र के भत्ते के तौर पर 30 हजार रुपए के साथ कई अन्य भत्ते दिए जाते हैं। पंजाब और हरियाणा में इस तरह के पद की कोई व्यवस्था नहीं है और इसी कारण हाई कोर्ट में इन नियुक्तियों को चुनौती दी जा चुकी है। इस मामले में अभी सुनवाई जारी है। पंजाब, हरियाणा के अलावा 68 विधानसभा सीटों वाली हिमाचल प्रदेश में 65 हजार रुपए की सैलरी और अन्य तरह के कई भत्तों के साथ 9 संसदीय सचिव नियुक्त किए गए हैं। गौरतलब है कि हिमाचल प्रदेश में भी संसदीय सचिवों की नियुक्ति के लिए कोई कानून नहीं है।

कर्नाटक में 10 संसदीय सचिव हैं, जिसे हाईकोर्ट में चुनौती दी जा चुकी है। तेलंगाना में 6 संसदीय सचिवों की नियुक्ति पर हाई कोर्ट ने स्टे लगा रखा है। तमिलनाडु, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और बिहार में संसदीय सचिव नहीं हैं। लेकिन यूपी में राज्य आयोगों के चेयरपर्सन नियुक्त किए जाते हैं। 2009 में गोवा और जून 2015 में पश्चिम बंगाल में संसदीय सचिव रखने को अमान्य घोषित कर दिया गया है।

लेकिन इन सबके अलावा राजस्थान, गुजरात और मणिपुर की कहानी अलग है। इन राज्यों में संसदीय सचिवों की नियुक्ति के लिए कानून जरूर है, लेकिन संख्या पर कोई सीमा निर्धारित नहीं की गई है। जहां तक सदस्यों की बात है तो 200 सीटों वाली राजस्थान विधानसभा में 5, 182 विधानसभा सीटों वाली गुजरात में 5 और 60 सीटों वाली मणिपुर विधानसभा में 5 संसदीय सचिव हैं। अगर उत्तर पूर्व के अन्य राज्यों की बात करें तो 60 विधानसभा सीटों वाली मिजोरम में 7, 60 विधानसभा सीटों वाली अरुणाचल प्रदेश में 15, 60 विधानसभा सीटों वाली मेघालय में 18 और 60 विधानसभा सीटों वाली नागालैंड में 24 संसदीय सचिव है। अबतक इनकी नियुक्ति को कोर्ट में चुनौती नहीं दी गई है।

क्यों पड़ी संसदीय सचिव की जरूरत?

मुख्यमंत्री संसदीय सचिव के पद को बेशक दिल्ली की जरूरत मानते हों लेकिन इसके राजनीतिक मायने काफी अलग है। इस सबके पीछे है यह कानून जिसके तहत केंद्र और राज्य सरकार में सदन की संख्या के 15 फीसदी से अधिक सदस्य मंत्री नहीं बन सकते। सरकार बनाने पर मंत्रियों की बड़ी फौज पर लगाम लगाने के लिए सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश वेंकटचलैया की रिपोर्ट के आधार पर 2003 में बने इस कानून के अनुसार केंद्र और राज्यों में सदन की संख्या के 15 फीसदी से अधिक सदस्य मंत्री नहीं बन सकते। 70 विधानसभा सीटों वाली दिल्ली के लिए विशेष प्रावधान के तहत 10 फीसदी यानी मुख्यमंत्री के अलावा 6 लोग ही मंत्री बन सकते हैं।

दिल्ली विधानसभा की 70 में से 67 सीटें जीतकर 14 फरवरी, 2015 को सत्ता में आने वाली आम आदमी पार्टी के लिए 6 मंत्रियों की संख्या काफी कम थी। सदस्यों के बढ़ते दबाव और पार्टी छोड़ने की आशंका के बीच  केजरीवाल ने 21 विधायकों को संसदीय सचिव के पद पर नियुक्त कर मंत्री का दर्जा दिया।

दिल्ली में क्या है संसदीय सचिव पद का इतिहास?

दिल्ली में संसदीय सचिव पद की शुरुआत सबसे पहले बीजेपी के ही तत्कालीन मुख्यमंत्री साहब सिंह वर्मा ने की थी। वर्मा ने एक संसदीय सचिव पद की शुरुआती की, लेकिन इस परंपरा को आगे बढ़ाते हुए कांग्रेस की शीला दीक्षित ने इसे बढ़ाकर तीन कर दिया। कांग्रेस और बीजेपी ने आपसी तालमेल के कारण इस पद की वैधता पर कभी सवाल नहीं उठाए। लेकिन आम आदमी पार्टी ने पिछली कांग्रेस सरकार से सात गुना ज्यादा, 21 संसदीय सचिवों की नियुक्ति कर इस पूरे विवाद को जन्म दिया।

कौन कौन आए लाभ के पद के शिकंजे में?

ऐसा नहीं है कि लाभ का पद के दायरे में पहली बार बवाल मचा है। इससे पहले भी कई बार यह मुद्दा उठ चुका है। देश में लाभ के पद का पहला मामला 1915 में तब आया जब कलकत्ता हाईकोर्ट में नगर निगम के प्रत्याशी के चुनाव को चुनौती दी गई थी। यही नहीं 2001 में शिबू सोरेन को झारखंड में स्वायत्त परिषद के सदस्य होने के कारण राज्य सभा सांसद पद से अयोग्य घोषित कर दिया गया था और जया बच्चन को राज्यसभा सांसद के साथ उत्तरप्रदेश में लाभ का पद लेने के आरोप पर अयोग्य घोषित किया गया। यही नहीं अनिल अंबानी को भी राज्यसभा सदस्यता से त्याग-पत्र देना पड़ा था। 2004 में राष्ट्रीय सलाहकार समिति (एनएसी) के चेयरपर्सन बनने के बाद सोनिया गांधी को भी लाभ के पद की शिकायत होने पर 2006 में संसद से त्यागपत्र देकर दोबारा चुनाव लड़ना पड़ा। हालांकि उसके बाद कानून में बदलाव करके एनएसी के चेयरपर्सन सहित 55 पदों को लाभ के पद के दायरे से ही बाहर कर दिया गया।

क्या कहते हैं केजरीवाल?

केजरीवाल ने कहा है कि विधायकों को संसदीय सचिव बनाने के बाद भी उन्हें किसी प्रकार का कोई ‘आर्थिक लाभ’ नहीं दिया जा रहा है और ये विधायक अपने पैसों पर लोगों की सेवा कर रहे हैं। लेकिन जनहित याचिका दायर करने वाले प्रशांत पटेल का कहना है कि केजरीवाल के विधायकों को इसके लिए न सिर्फ कमरे और ऑफिस स्टॉफ मिले हैं बल्कि पैसे भी दिए जाते हैं।

केजरीवाल के पास क्या हैं विकल्प?

आम आदमी पार्टी के पास अपने विधायकों की सदस्यता बचाने के लिए अब केवल कोर्ट का रास्ता ही बचा है। संविधान विशेषज्ञों का मानना है कि फिलहाल विधायकों की सदस्यता खत्म करने में अभी वक्त लगेगा और ऐसे में पार्टी पूरी तैयारी के साथ अदालत का रुख कर सकती है। विशेषज्ञों का कहना है कि संसदीय सचिव ऑफिस का इस्तेमाल कर रहे हैं, जो इस दायरे में आता है और सदस्यता खत्म करने के लिए यह काफी है। हालांकि कुछ विशेशज्ञों का यह भी मानना है कि केजरीवाल अदालत में यह भी कह कर बचाव कर सकते हैं कि सकते हैं कि संसदीय सचिव की नियुक्तियों को उप राज्यपाल ने कभी अनुमोदन दिया ही नहीं और ऐसे में बिना नियुक्ति के किसी कानून के उल्लंघन का सवाल ही नहीं उठता। संविधान विशेषज्ञों के मुताबिक किसी भी सांसद या विधायक की सदस्यता रद्द करने का अधिकार राष्ट्रपति के पास है।

फिर ‘गायब’ हुए राहुल…आखिर कहां चले गए!

नई दिल्ली। पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में मिली करारी शिकस्त और अगले साल होने वाले यूपी विधानसभा चुनाव के लिए जारी सियासी खींचतान के बीच एक चेहरा नजर नहीं आ रहा है। वो चेहरा हैं कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी का, राहुल गांधी जब भी इस तरह की रहस्यमयी छुट्टियों पर जाते हैं तो सियासी गलियारे से लेकर सोशल मीडिया तक में चर्चा शुरू हो जाती है। तरह-तरह की अटकलों का दौर चलता है। कोई उनके विदेश जाने की बात करता है तो कोई उत्तराखंड-हिमाचल जाने की।

आखिर हो भी क्यों न, ऐसे समय में जब एक तरफ पार्टी के शीर्ष पदों पर फेरबदल की तैयारी चल रही है और दूसरी तरफ आगामी विधानसभा चुनावों के लिए रणनीतियां बन रही हैं, राहुल गांधी नदारद है। ऐसा माना रहा है कि हर साल की तरह एक बार फिर राहुल गांधी गर्मी की छुट्टियां मनाने जा चुके हैं, लेकिन सवाल उठ रहे हैं कि जब वक्त यूपी चुनावों के लिए रणनीति बनाने और पार्टी में अहम फेरबदल का था, तब राहुल कहां चले गए?

फिर

कहा जा रहा है कि जून के दूसरे हफ्ते से लेकर जुलाई के शुरू यानि कुल मिलाकर करीब 15 दिन तक राहुल गांधी छुटि्टयों पर ही रहेंगे। इस मुद्दे पर पार्टी का भी एक ही रुख होता है। पार्टी पहले भी कह चुकी है कि अगर राहुल ब्रेक लेना चाहते हैं और आत्मचिंतन करना चाहते हैं, तो इसमें क्या गलत है? जाहिर है इसमें कुछ भी गलत भी नहीं है, लेकिन, इस समय कांग्रेस मे पांच राज्यों के चुनाव में हुई करारी हार के बाद हार के कारणों पर चर्चा तेज है तो वहीं दूसरी ओर संगठन में फेरबदल तक की संभावनाएं जताई जा रही हैं। इन हालातों में राहुल गांधी का एक बार फिर गायब हो जाना कई तरह के सवाल खड़े करता है। हालांकि राहुल ने ऐसा पहली बार नहीं किया है।

गौरतलब है कि पिछले साल फरवरी में राहुल गांधी अचानक लंबी छुट्टियों पर चले गए थे, जिसे लेकर तमाम अटकलें लगी थीं। संसद का बजट सत्र चल रहा था और राहुल गांधी छुट्टी पर थे, यही नहीं सत्र शुरू होने के करीब एक हफ्ते पहले से ही वो नजर नहीं आ रहे थे। बाद में मीडिया खबरों से खुलासा हुआ कि राहुल बैंकाक में थे, जाहिर है संसद की कार्यवाही से इस तरह दूरी बनाकर इस तरह बैंकाक घूमने पर उनके नेतृत्व क्षमता पर सवाल उठना लाजिमी है। यही नहीं बिहार चुनाव से ठीक पहले भी रहस्यमयी तरीके से राहुल छुट्टी पर चले गए थे जिसस पार्टी को काफी मुसीबतों का सामना करना पड़ा था। उस समय अटकलें यह भी लगाई जा रही थी कि वह पार्टी के भीतर चल रही क्रियाकलापों से नाराज होकर गए हैं।

हालांकि नए साल के अवसर पर सोशल मीडिया के जरिए बताकर वो यूरोप की यात्रा पर गए थे। अक्सर देखा गया है कि जब भी राहुल लंबी छुट्टियों के बाद आते हैं, एक नई ऊर्जा के साथ सक्रिय जरूर होते हैं लेकिन जल्द ही वे फिर छुट्टियों पर चले जाते हैं। देखना दिलचस्प होगा कि इस बार राहुल किस तेवर के साथ लौटते हैं। क्या इस बार भी राहुल मोदी सरकार को ‘सूट बूट की सरकार’ जैसा चुभने वाला कोई नया जुमला लेकर आएंगे।

कैराना के घरों में लटकते तालों के पीछे ये है असली कहानी…

नई दिल्ली। अगले साल उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव होने हैं और ऐसे में राज्य का कोई भी छोटा-बड़ा मुद्दा सियासी रूप ले सकता है। इस परिस्थिति में बात अगर जाति-धर्म से जुड़ी हो तो फिर वो मुद्दा राजनीति से कैसे अछूता रह सकता है। ऐसा ही कुछ हो रहा है उत्तर प्रदेश के कैराना में, जहां अलग अलग सूत्रों के माध्यम से अलग-अलग खबरें चल रही है। कुछ रिपोर्टों का मानना है कि कई हिंदू परिवारों ने दहशत में आकर वहां से पलायन किया है, जबकि कुछ अन्य रिपोर्टों के मुताबिक यह महज चुनावी लाभ लेने के लिए एक मुद्दा है। आइए जानते हैं क्या है कैराना सच….

क्या है यह पूरा विवाद- इस पूरे विवाद की शुरुआत तब हुई जब स्थानीय बीजेपी सासंद हुकुम सिंह 346 हिंदू परिवारों की सूची सौंपते हुए यह आरोप लगाया कि कैराना को कश्मीर बनाने की कोशिश की जा रही है। हुकुम सिंह ने कहा कि यहां हिंदुओं को धमकाया जा रहा है, जिससे हिंदू परिवार बड़ी संख्या में पलायन कर रहे हैं। हुकुम सिंह के इतना कहते ही बीजेपी ने अखिलेश सरकार पर हमला बोल दिया। बीजेपी ने न सिर्फ अखिलेश सरकार के कानून व्यवस्था पर सवाल उठाए बल्कि इसे सोची समझी रणनीति भी करार दिया। इसके जबाव में अखिलेश और मायावती ने बीजेपी पर जमकर हमला बोला।

कैराना के घरों में लटकते तालों के पीछे ये है असली कहानी... 

बीजेपी सांसद हुकुम सिंह ने दावा किया है कि उन्होंने कैराना से पलायन करने वाले हर घर का सत्यापन कराया है, जबकि इस लिस्ट में ऐसे भी नाम शामिल हैं जो आर्थिक और कारोबारी वजह से पलायन कर चुके थे। इनके पलायन का संबंध न किसी आतंकी माहौल से था और न ही मुस्लिम समुदाय के खौफ से। मामला बढ़ने पर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने दखल देते हुए राज्य सरकार को नोटिस भेजकर चार हफ्ते के अंदर जवाब की मांग की है। दूसरी तरफ, बीजेपी ने 9 सदस्यीय जांच कमेटी बनाकर सियासी गरमाहट और बढ़ा दी है. कमेटी आज कैराना पहुंचेगी और हिंदुओं के पलायन के बारे में जानकारी जुटाएगी।

क्या है हकीकत- कुल मिलाकर अब यह पूरी तरह सियासी मुद्दा बन चुका है और इस मुद्दे पर विधानसभा चुनाव लड़ने की तैयारी भी की जा रही है। सांसद हुकुम सिंह ने दावा किया गया है कि पिछले पांच सालों में कैराना में हिन्दुओं की आबादी 22 फीसदी कम हो गई है। अब तक की पड़ताल में जो सबसे अहम बात सामने आई है वो यह है कि इलाक़े में बिगड़ती कानून व्यवस्था की वजह से कुछ मुस्‍लिम परिवार भी इलाके से पलायन कर चुके हैं। एक तरफ जहां ऐसा कहा जा रहा है कि यहां व्यापारियों से रंगदारी मांगी जाती है तो दूसरी तरफ पिछले आठ से दस सालों में कैराना से लोग बेहतर कमाई और नौकरी के लिए बाहर जाते जाते रहे हैं जिसमें  मुस्लिम परिवार भी शामिल हैं। बीजेपी द्वारा दी गई सूची में कुछ लोग ऐसे हैं जो सालों पहले मर चुके हैं तो कुछ ने कभी कैराना छोड़ा ही नहीं, जबकि कुछ ऐसे भी हैं जो कारोबार, रोजगार और बेहतर भविष्य के लिए बाहर गए हैं।

बीजेपी ने क्यों उठाया मुद्दा- बीजेपी कैराना के मुद्दे को उत्तर प्रदेश में होने वाली आगामी विधानसभा चुनावों के दौरान भुनाना चाहती है। जाहिर है कैराना मुद्दे से पूरे राज्य में ध्रुवीकरण करने में सहायता मिलेगी। जाहिर है कि बीजेपी ने इलाहाबाद में हुई राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में स मुद्दे को जोर शोर से उठाते हुए यह साफ कर दिया कि पश्चिम यूपी में यह बड़ा चुनावी मुद्दा बनने जा रहा है। ऐसे में चुनावी बिगुल फूंकते ही कैराना का मुद्दा पार्टी के हाथ लगा है। बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने कैराना के मुद्दे को जिस प्राथमिकता से उठाया है, निश्चित रूप से उसके दूरगामी संकेत है।

पार्टी के बड़े-बड़े दिग्गज नेता और मंत्री इस मुद्दे पर प्रदेश सरकार पर जमकर हमला बोल रहे है। कैराना मुद्दे की अहमियत का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि अखिलेश सरकार को घेरने वालों में बीजेपी के योगी आदित्यनाथ,  अमित शाह, राजनाथ सिंह और किरन रिजिजू जैसे दिग्गज नेता भी शामिल हैं।यह मुद्दा बीजेपी के लिए दादरी और अयोध्या से भी बढ़कर हैं इसलिए भी है क्योंकि यह पश्मिमी यूपी का अहम हिस्सा तो है ही साथ में यहां मुस्लिम आबादी काफी ज्यादा है। मुस्लिम औऱ जाट आबादी के मद्देनजर से यह इलाका काफी अहम हो जाता है।

आपको बता दें कि 1980 में इसी इलाके से चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत ने सरकार के खिलाफ मोर्चा खोलते हुए किसी भी तरह के कर्ज और टैक्स के खिलाफ आंदोलन छेड़ दिया था। पश्चिमी यूपी में अजगर (अहिर, जाट, गुज्जर,राजपूत) वोट बैंक पर पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह की अच्छी पैठ थी और इसने सभी राजनीतिक दलों को अपनी तरफ झुकने के लिए मजबूर किया। मुलायम सिंह भी पश्चिमी यूपी में अच्छी पकड़ रखते हैं और मुलायम ने मुस्लिमों को भी इस गुट में जोड़ लिया था।

इससे पहले मुजफ्फरनगर के दंगों ने इलाके की शांति को लंबे समय तक के लिए खत्म करके रख दिया था। हालांकि मुजफ्फरनगर दंगों का सियासी फायदा बीजेपी ने 2014 के लोकसभा चुनाव में लिया था। ऐसे में बीजेपी पश्चिमी यूपी को नजरअंदाज नहीं कर सकती है और वह पूरी कोशिश में जुटी है कि उसे एक बड़े वर्ग का वोट हासिल हो सके। ऐसे में अगर वोटों का ध्रुवीकरण होता है तो पार्टी को जबरदस्त सफलता हासिल हो सकती है।2014 के लोकसभा चुनाव में सभी 19 संसदीय क्षेत्र जोकि पश्चिमी यूपी की जाट बेल्ट में थे जिसमें सहारनपुर,फतेहपुर सीकरी शामिल हैं भाजपा के खाते में गई थी। मुजफ्फरनगर के दंगों के बाद भाजपा को बड़ी संख्या में हिंदुओं की विभिन्न जातियों का वोट मिला था।

क्या है कैराना का इतिहास-  पंडित भीमसेन जोशी और रोशन आरा बेगम जैसे बड़े शास्त्रीय संगीतकार देने वाले कैराना को प्राचीन काल में कर्णपुरी के नाम से जाना जाता था और माना जाता है कि महाभारत काल में कर्ण का जन्म यहीं हुआ था। हालांकि इसका कोई ऐतिहासिक आधार नहीं मिला है। यह कहानी भी कम प्रचलित नहीं है कि कैराना का नाम ‘कै और राणा’ नाम के राणा चौहान गुर्जरों के नाम पर पड़ा और माना जाता है कि राजस्थान के अजमेर से आए राणा देव राज चौहान और राणा दीप राज चौहान ने कैराना की नींव रखी।  कैराना के आस-पास कलश्यान चौहान गोत्र के गुर्जर समुदाय के 84 गांव हैं। सोलहवीं सदी में मुग़ल बादशाह जहांगीर ने अपनी आत्मकथा तुज़ुक-ए-जहांगीरी में कैराना की अपनी यात्रा के बारे में लिखा है। माना जाता है कि अपने समय के महान संगीतकार मन्ना डे जब किसी काम से कैराना पहुंचे थे तो कैराना की सीमा में घुसने से पहले महान संगीतकारों के इस क्षेत्र के सम्मान में उन्होंने अपने जूते उतारकर हाथ में रख लिए थे।

राजधानी दिल्ली से करीब 100 किलोमीटर और उत्तर प्रदेश के मुझफ्फरनगर से 50 किलोमीटर दूर उत्तर प्रदेश के उत्तर पश्चिम में हरियाणा की सीमा पर यमुना किनारे बसा कैराना का ऐतिहासिक महत्व रहा है। उत्तर प्रदेश के शामली जिले का कैराना तहसील पहले मुजफ्फरनगर जिले की तहसील थी। 2011 में मायावती ने शामली को एक अलग जिला घोषित किया, जिसमें कैराना भी शामिल हो गया। कैराना एक लोकसभा और विधानसभा सीट भी है। पिछड़ा इलाका होने के कारण बरसों से यहां के लोग पानीपत, मेरठ, दिल्ली सहित अन्य आस पास के जगहों पर काम की तलाश में जाते रहे है।

क्या है जातीय समीकरण- 2011 जनगणना के मुताबिक कैराना तहसील की की जनसंख्या एक लाख 77 हजार 121है जिसमें कैराना नगर पालिका की आबादी करीब 90 हजार है। कैराना नगर पालिका परिषद के इलाक़े में 81 फीसदीमुस्लिम, 18 फीसदी  हिंदू और अन्य धर्मों को मानने वाले लोग 1 फीसदी हैं। यूपी में साक्षरता दर 68 फीसदी है लेकिन कैराना में 47 फीसदी लोग ही साक्षर हैं। शामली के कांधला, कैराना, झिंझाना, आसपास के गांव के अलावा कैराना के आलकला, कायस्थवाड़ा, गुंबद, लालकुआं, बेगमपुरा, दरबारखुर्द, आर्यपुरी, कांधला अड्डा पानीपत रोड में हिंदू-मुस्लिम मिश्रित आबादी है।

क्या कहा गया पुलिस रिपोर्ट में- इस मुद्दे पर कैराना प्रकरण पर सहारनपुर रेंज के डीआईजी एके राघव की रिपोर्ट सामने आई है। खबरों के अनुसार राघव ने डीजीपी मुख्यालय को भेजे अपनी रिपोर्ट में बीजेपी पर गंभीर आरोप लगाए हैं। राघव ने कहा कि अगले साल यूपी में होने वाले विधानसभा चुनावों में लाभ के लिए बीजेपी हिंदुओं में कथित असुरक्षा की भावना को मुद्दा बनाकर हिंदू मतों का ध्रुवीकरण करना चाहती है। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि सांसद हुकुम सिंह ने भी सांप्रदायिक ध्रुवीकरण कर जीत हासिल की थी। अब वो अपनी बेटी को भी इसी रास्ते चुनावी मैदान में उतारना चाहता है।

रिपोर्ट मे कहा गया है कि बीजेपी और हिंदू संगठन विधानसभा चुनावों में लाभ लेने के उद्देश्य से हिंदुओं में कथित असुरक्षा की भावना को मुद्दा बनाकर हिंदू मतों का ध्रुवीकरण कर रहे हैं। रिपोर्ट के अनुसार बड़ी संख्या में व्यापारी और किसान अपनी उन्नति के लिए कस्बा छोड़कर चले गए हैं। डीआईजी ने अपनी रिपोर्ट में किसी बड़े सांप्रदायिक घटना से भी इंकार नहीं किया है। इस पूरे मामले ने अब जोर पकड़ लिया है। बड़े स्तर पर सत्यापन का कर्य जारी है। डीएम खुद अलग से टीमें लगाकर सत्यापन की क्रास चेकिंग करवा रहे हैं। हालांकि पुलिस प्रशासन ने भी सत्यापन में माना है कि सूची में शामिल कुछ परिवारों को दहशत के कारण ही कैराना छोड़ना पड़ा। जरूरत इस बात की है कि यूपी सरकार और केंद्र सरकार दोनों को मामले की निष्पक्ष जांच करवा कर दोषियों को दंडित किया जाना चाहिए।

‘उड़ता पंजाब’ पर तूफान…बीजेपी की मजबूरी और आप का उफान!

नई दिल्ली। बंबई हाई कोर्ट के आदेश के बाद फिल्म उड़ता पंजाब पर बवाल अब थम सा गया है लेकिन मुद्दा बरकरार है कि नशा देश की बड़ी समस्या है। लेकिन हालिया विवाद ने इसके सियासी नफा नुकसान को भी आयाम दे दिया। आरोप-प्रत्यारोप का दौर सियासी गलियारों तक जा पहुंचा और इसका पटाक्षेप अदालत में हुआ। क्या फिल्म उड़ता पंजाब नशे के खिलाफ जागरूकता फैलाने के मकसद से बनाई गई है? या फिर इसके जरिए पॉलिटिकल माइलेज लेने की कोशिश की गई? इसे लेकर जमकर सियासत देखने को मिली। पंजाब चुनाव से ठीक पहले फिल्म को रिलीज करने पर सवाल अनुराग कश्यप पर भी उठे साथ ही पंजाब सरकार के रवैये ने भी कई सवाल खड़े किए।

गौरतलब है कि पंजाब में अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए सभी पार्टियों ने अभी से अपनी तैयारी शुरू कर दी है। पहली बार यह चुनाव दो दलीय न होकर त्रिकोणीय होने जा रहा है। इस बार आम आदमी पार्टी भी कड़ी टक्कर देती नजर आ रही है। शायद यही वजह थी कि विधानसभा चुनाव से ऐन पहले उड़ता पंजाब एक राजनीतिक मुद्दा बन गया। जानने की कोशिश करते हैं कि उड़ता पंजाब का क्या हो सकता है पंजाब में असर और इससे क्यों खतरे में हैं बीजेपी की संभावनाएं।

बेरोजगारी और ड्रग्स  

पंजाब में बेरोजगारी और ड्रग्स हमेशा से ही मुख्य चुनावी मुद्दा रहा है। बेरोजगारी और ड्रग्स से जूझ रहे पंजाब में 2012-13 आर्थिक सर्वेक्षण (2012-13) की एक रिपोर्ट के मुताबिक, राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के 66वें दौर के अनुसार, पंजाब में हर 1,000 लोगों में से 42 व्यक्ति बेरोजगार हैं, जबकि राष्ट्रीय औसत 25 व्यक्तियों का है। हैरान करने वाली बात यह है कि 2011 में, रोजगार कार्यालयों में पंजीकृत 362,000 लोगों में से 253,000 शिक्षित हैं। अगर ड्रग्स की बात करें तो पंजाब में मादक पदार्थ कितना बड़ा मुद्दा है, इस बात का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि राज्य सरकार ने मादक पदार्थों के सेवन के खिलाफ जागरूकता फैलाने के लिए 2013-14 में Rs.71 लाख रुपये खर्च किए। यही नहीं 2014-15 के लिए सरकार ने इस मुद्दे से निपटने के लिए 100 करोड़ रुपये का प्रावधान किया था।

पंजाब में अफीम, स्मैक, कोकीन, गाजा जैसे नशे बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किए जाते हैं और ये नशा ज्यादातर किसान, मजदूर, पेशेवर, ड्राइवर, नौजवान इस्तेमाल करते हैं। माना जाता है कि 2001-14 के बीच 3 करोड़ किलोग्राम से अधिक ड्रग्स जब्त किया गया। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार पंजाब में 50 फीसदी से अधिक नौजवान नशा करते हैं जबकि राष्ट्रीय औसत 2.8 फीसदी है। एम्स के एक अध्ययन के अनुसार पंजाब में ओपिआयड ड्रग्स का सालाना खर्च 7500 करोड़ रुपए से अधिक है जिसमें से 6500 करोड़ रुपये हेरोइन पर खर्च किए जाते हैं। गौरतलबहै कि ये राशि सरकार द्वारा नशा मुक्ति और पुनर्वास पर खर्च की जाने वाले राशि से सौ गुना से भी अधिक है। औसतन हेरोइन का आदी व्यक्ति हर रोज 1400 रुपए नशे पर खर्च करता है।

इस फिल्म का क्या होगा असर

पंजाब में सत्तारूढ़ अकाली दल को अगले साल होने जा रहे पंजाब विधानसभा चुनाव में नुकसान का अंदेशा है तो कांग्रेस और आम आदमी पार्टी को सियासी फायदा दिख रहा है। जाहिर है विपक्षी पार्टियां लोगों के बीच अकाली और बीजेपी के खिलाफ आसानी से मोर्चा खोल सकती है। यही वजह है कि इसे अभिव्यक्ति की आजादी बताकर रिलीज करने का समर्थन किया रहा है। पंजाब में अकाली-बीजेपी की सरकार को लेकर बढ़े असंतोष, नशे के विस्तार और युवाओं में बेरोजगारी ने मौजूदा सत्ताधारी गठबंधन की वापसी को बेहद मुश्किल बना दिया है।

Newly-Inducted Ministers Take Charge

इससे अलग बीजेपी के लिए क्या है समस्या

बीजेपी की सबसे बड़ी समस्या यह है कि राज्य में उसके पास ऐसे नेता हैं जिनकी राज्य की राजनीति में कोई खास पहचान नहीं है और  बीजेपी राज्य में अपनी राजनैतिक दिशा नहीं तय कर पा रही है। पहले दिल्ली और फिर बिहार की जबरदस्त हार ने बीजेपी की सोच ही नहीं बदल दी बल्कि राज्य में उसे एक गहरी सुस्ती में ढकेल दिया हालांकि हाल ही में 5 राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव के नतीजों ने पार्टी के भीतर नई उर्जा का संचार किया है।

बीजेपी ने पूर्व अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेटर नवजोत सिंह सिद्धू को राज्यसभा के लिए मनोनीत कर एक अच्छा दांव खेला है। सिद्धू को जिम्मेदारी देने के साथ ही बीजेपी उनका चुनाव में इस्तेमाल करने की जुगत में है। लोकसभा चुनाव के दौरान अरुण जेटली के कारण सिद्धू को अमृतसर लोकसभा सीट छोड़नी पड़ी थी। जिसके बाद से ही सिद्धू पार्टी से नाराज बताए जा रहे थे। पार्टी के पास पंजाब में कोई सिख चेहरा नहीं है और सिद्धू की आम आदमी पार्टी के साथ करीबी की भी खबरें आ रही थीं।

बीजेपी ने केंद्रीय सामाजिक न्याय और अधिकारिता राज्य मंत्री विजय सांपला को पंजाब की कमान सौंप कर पार्टी की नई रणनीति का संकेत दे दिया है। जाहिर है बीजेपी दलित मतदाताओं को अपने पक्ष में कोशिश करने की तैयारी कर रही है। सरपंच का चुनाव जीतने से लेकर होशियारपुर से सांसद बनने तक विजय सांपला का निजी जीवन भी इस राजनीतिक चुनौती से कम चुनौतीपूर्ण नहीं रहा है।

Narendra Modi Addresses Rally At Hoshiarpur

निजी जिंदगी में मिसाल कायम करने वाले सांपला के लिए अब यही भूमिका पार्टी के लिए निभानी है जो दो बार से अकाली दल के साथ सत्ता में काबिज होने के बाद इस चुनाव में सत्ता विरोधी लहर का सामना कर रही है। पंजाब में सियासी हवा अकाली-बीजेपी गठबंधन के खिलाफ है और ऐसे में सांपला के लिए यह अग्निपरीक्षा से कम नहीं है। अब तक यह साफ हो चुका है कि इस चुनाव में भी बीजेपी-अकाली दल गठबंधन मिलकर चुनाव लड़ेगी। सांपला ने जिस अंदाज में इस गठबंधन को हिंदू-सिखों का गठजोड़ बताया उससे पार्टी की राजनीतिक मंशा भी जाहिर हो जाती है।

कुछ राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि पंजाब में अकाली के खिलाफ नाराजगी को देखते हुए बीजेपी अलग होकर अपने वोटबैंक को सुरक्षित कर सकती थी।बीजेपी की अंदरूनी राजनीति भी पार्टी के लिए खतरनाक हो सकती है। पार्टी का एक असंतुष्ट खेमा अकाली के साथ गठबंधन का विरोध करता रहा है और इसी को देखते हुए पार्टी ने सांपला को अध्यक्ष बनाकर एक तीर से दो निशाना साधते हुए गुटबाजी को भी शांत कर दिया और दलितों को रिझाने का काम भी। आखिरी समय में सीटों के बंटवारे को लेकर भी खींचतान देखा जा सकता है हालांकि सांपला ने साफ कर दिया है कि पुराना फॉर्मूला ही इस बार भी लागू होगा। पिछली बार बीजेपी 23 सीटों पर चुनाव लड़ी थी, उम्मीद की जा रही है कि इस बार बीजेपी अकाली दल से 10-15 और नई सीटों की मांग कर सकती है।

क्या है पंजाब का जातीय गणित

पंजाब में 32 फीसद दलित वोट हैं और राज्य के दोआबा क्षेत्र जिसमें जालंधर, होशियारपुर और दलित राजनीति की शुरुआत करने वाले कांशीराम की जन्मस्थली नवाशहर शामिल है, इनकी संख्या काफी अधिक है। पंजाब के 117 सीटों में से 42 सीटें ऐसी हैं जिनमें दलित वोट किसी भी नतीजे को बदलने की क्षमता रखते हैं। बीजेपी सांपला के जरिये दलित वोटों का ध्रुवीकरण करने की जुगत में है। जाहिर है इस बार मामला त्रिकोणीय है और पंजाब में दलित वोट का वो हिस्सा जो उनके विरोध में रहता है इस बार कांग्रेस और आम आदमी पार्टी की तरफ जा सकती है।

लोकसभा चुनाव 2014 में देशभर में 400 सीटों से अधिक पर जमानत जब्त होने के बावजूद पार्टी ने जिस तरह पंजाब में प्रदर्शन करते हुए चार सीटों पर दर्ज की,उसी समय विधानसभा चुनाव की भी पटकथा लिख गई थी। पिछले चुनावों की अगर बात की जाए तो बीजेपी की स्थिति पिछले दो विधानसभा चुनावों में लगातार कमजोर होती रही है। 2007 के विधानसभा चुनाव में पार्टी को जहां 19 सीटें हासिल हुई थीं तो वहीं 2012 के चुनाव में बीजेपी 12 सीटों पर ही सिमट गई थी।

 

बदल गया राज्यसभा का गणित, कांग्रेस में खलबली, क्या पास होगा GST?

नई दिल्ली। पांच राज्यों में हाल ही संपन्न हुई विधानसभा चुनावों के नतीजों में मिली करारी शिकस्त के बाद कांग्रेस को राज्यसभा चुनाव में भी झटका लगा है। एनडीए की ताकत लोकसभा के बाद अब राज्यसभा में भी लगातार बढ़ती जा रही है, जबकि यूपीए की स्थिति दोनों सदनों में कमजोर होती जा रही है। शनिवार को संपन्न हुए राज्यसभा चुनाव का असर सिर्फ संसद के ऊपरी सदन में ही नहीं बल्कि राष्ट्रीय राजनीति में देखने को मिलेगा।

राज्यसभा में हर मुद्दे पर अब तक एक तरह से अपनी वीटो पॉवर का इस्तेमाल कर अड़ंगा डाल रही कांग्रेस अब बैकफुट पर आ गई है और ऊपरी सदन में बीजेपी की बढ़ती ताकत से पार्टी के अंदर खलबली मच गई है। जाहिर है इस चुनाव में सभी पार्टियों के लिए कुछ पाने और कुछ खोने जैसी स्थिति रही, लेकिन कुल मिलाकर इसमें बीजेपी ने बाजी मारी और बेहतर रणनीति का परिचय दिया। आइए देखते हैं इस परिणाम से राष्ट्रीय राजनीति पर क्या होगा असर….

बदल गया राज्यसभा का गणित, कांग्रेस में खलबली, क्या पास होगा GST?

क्या रहा राज्यसभा का चुनावी परिणाम- इस चुनाव में खाली हुई 57 सीटों पर चुनाव हुए हैं जिसमें पहले कांग्रेस और बीजेपी के पास 14-14 सीटें थी।  जबकि सपा की 7, जेडीयू की 5, बीजेडी और एआईएडीएमके की 3-3, बसपा, डीएमके, एनसीपी और टीडीपी की 2-2 और वाइएसआर कांग्रेस,शिवसेना और शिरोमणि अकाली दल की 1-1 सीटें थी। इन 57 सीटों में से 8 राज्यों से 30 सदस्य निर्विरोध चुने गए और 7 राज्यों की 27 सीटों पर चुनाव हुआ, जिसमें बीजेपी ने 11, कांग्रेस ने 6, सपा ने 7, बसपा ने 2 और निर्दलीय ने 1 सीट पर कब्जा किया।

इस चुनाव में राजस्थान की चारों सीटें बीजेपी ने जीत ली, जबकि यूपी में 11 सीटों पर हुई वोटिंग में7 सपा, 2 बीएसपी और 1-1 कांग्रेस और बीजेपी के खाते में गई। झारखंड में बीजेपी दोनों सीटें जीतने में सफल रही। एमपी में भी बीजेपी तीन में से दो ही सीट जीत पाई और कांग्रेस के विवेक तन्खा राज्यसभा पहुंच गए। हरियाणा में उलटफेर के तहत एक सीट बीजेपी के खाते में गई तो दूसरी सीट पर बीजेपी के सपोर्ट से खड़े हुए सुभाष चंद्रा कांग्रेस में फूट का फायदा उठा कर जीत गए।

राज्यसभा की मौजूदा स्थिति

इस समय एनडीए के पास 72 सीटें, यूपीए के पास 66 सीटें और अन्य क्षेत्रीय दलों के पास 107 सीटें है। चुनाव से पहले राज्यसभा में बीजेपी के कुल 49 सदस्य थे और चुनाव के बाद उसे चार सीटों का फायदा हुआ है। यानी अब उसकी खुद की ताकत 53 सीटों की हो चुकी है। वहीं, कांग्रेस के 61 सांसद हैं। उपरी सदन में क्षेत्रीय दलों के 89 सदस्य हो गए हैं। चुनाव के बाद उनकी संख्या में कोई परिवर्तन नहीं आया है। चार सीटों के फायदे के साथ समाजवादी पार्टी के अब 19 सदस्य हो गए हैं जबकि जेडीयू और आरजेडी के संयुक्त सदस्यों की संख्या 12 हो गई है। तृणमूल कांग्रेस और अन्नाद्रमुक के सदस्यों की संख्या 12-12 हो गई है जबकि बीएसपी के 6 सदस्य, सीपीआई (एम) के आठ सदस्य, बीजेडी के 7 सदस्य और डीएमके के 5 सदस्य हैं।

चुनाव से किसको कितना फायदा?

संसद के ऊपरी सदन में पहली बार बीजेपी ने 50 का आंकड़ा पार किया है और कांग्रेस पहली बार 60 सीटों पर सिमट गई है। राज्यसभा में खाली हुई 57 में से 14सीटें बीजेपी के पास थीं और चुनाव के बाद 17 सीटें पार्टी के खाते में आ गई। यही नहीं हरियाणा से सुभाष चंद्रा भी बीजेपी के समर्थन से जीते और उन्हें शामिल करने के बाद बीजेपी को इस बार 4 सीटों का फायदा हुआ।

जहां तक कांग्रेस की बात है तो खाली हुई सीटों में 14 सीटें उसके पास थीं, लेकिन चुनाव के बाद उसे सिर्फ 9 सीटें ही मिलीं। 5 सीटें गंवाने के बाद भी कांग्रेस राज्यसभा में सबसे बड़ी पार्टी है। हालांकि मॉनसून सत्र में बीजेपी की ओर से राज्यसभा में आक्रामक रणनीति अपनाने के बाद कांग्रेस ने खासकर चिदंबरम और कपिल सिब्बल को राज्यसभा में भेजा है और इससे पार्टी को अपनी बात रखने में सुविधा होगी। सुब्रमण्यन स्वामी के आने के बाद राज्यसभा का समीकरण बदलने लगा था।

जहां तक गठबंधन की बात करें तो बीजेपी की सहयोगी पार्टियां शिवसेना, अकाली दल, पीडीपी, टीडीपी,  आरपीआई, बोडोलैंड पीपल्स फ्रंट, नागालैंड पीपल्स फ्रंट, और सिक्किम डेमोक्रेटिक फ्रंट को मिलाकर एनडीए के पास राज्यसभा में 72 सीटें हैं, लेकिन यूपीए के पास इस सदन में डीएमके, केरल कांग्रेस और मुस्लिम लीग की सीटें जोड़कर कुल 66 सीटें ही बनती हैं। इस चुनाव में 4 सीटों के फायदे के साथ सपा भी सदन की तीसरी सबसे बड़ी पार्टी बन गई है और उसके पास राज्यसभा में 19सीटें हो चुकी है जबकि मायावती की बसपा ने चुनाव में 4 सीटें गंवा दी।

क्यों विवादों में रहा राज्यसभा चुनाव?

57 सीटों का यह राज्यसभा चुनाव काफी विवादों में भी घिरा रहा। सबसे अधिक विवाद कर्नाटक में कैश फॉर वोट स्टिंग को लेकर रहा तो दूसरी तरफ हरियाणा के उलटफेर ने भी कांग्रेस की नींद उड़ा दी। हालांकि तमाम सवालों के बीच भी चुनाव रद्द नहीं हुए लेकिन मामले के सामने आने से एक बार फिर इस चुनाव पर सवाल उठे। हरियाणा में जहां कांग्रेस के विधायकों ने बगावत की तो यूपी में सपा के बागी नेता गुड्डू पंडि‍त ने आरोप लगाया कि‍ सपा नेता पवन पांडेय ने बैलेट छीनने की कोशि‍श की तो बीजेपी के कई नेताओं ने कहा कि‍ उन्‍हें वोट देने से रोकने की कोशि‍श हुई।

राज्यसभा में लटके विधेयकों का क्या होगा?

जहां तक राज्यसभा की बात है तो बीजेपी अभी भी इस सदन में अल्पमत में है।  जाहिर है संवैधानिक और बहुचर्चित जीएसटी बिल को पास कराना आसान नहीं है। लेकिन बीजेपी का हौसला जरूर बढ़ा है। इसे पास कराने के लिए 245 सदस्यीय सदन में दो-तिहाई वोट यानी कम से कम 164 सीटें चाहिए।

सदन की दो सबसे बड़ी पार्टियां कांग्रेस और बीजेपी के सदस्यों को मिलाकर भी यह आधे से कम है। किसी भी बिल को पास करने का समीकरण दूसरे दलों के पक्ष में हैं। सपा (19), एडीएमके (13), जेडीयू (10), टीएमसी (12) और बसपा (6)  के पास ही 60 सीटें हैं। इसके लिए बीजेपी को इन क्षेत्रीय पार्टियों के सहयोग की जरूरत होगी और ऐसे में ये पार्टियां किंगमेकर की भूमिका निभा सकती है। ये पांचों एनडीए और कांग्रेस की अगुआई वाले यूपीए में भी शामिल नहीं हैं। यहां बीजेपी को कांग्रेस की कमजोरी का फायदा मिल सकता है।

राज्यसभा में जीएसटी बिल पास करवाने के लिए जूझ रही केंद्र सरकार राहत की सांस ले सकती है। ममता बनर्जी पहले ही जीएसटी को लेकर सरकार का समर्थन करने की बात कह चुकी हैं। जीएसटी पर बीजेपी को मायावती और जयललिता का साथ भी सरकार को मिल सकता है। जयललिता और बसपा को लेकर यही कयास लगाए जा रहे हैं कि वह सीधे तौर पर सरकार का समर्थन नहीं भी करेंगी तो वोटिंग के दौरान वॉकआउट कर सकती हैं।

जीएसटी के मुद्दे पर बीजेपी को इन समर्थनों के अलावा उसे सात नॉमिनेटेड, अकाली दल के तीन, टीडीपी के छह, 5 निर्दलीय के अलावा, कई छोटे-छोटे दलों का समर्थन मिल सकता है। यही नहीं, नीतीश कुमार भी जीएसटी बिल को पारित करवाने में सरकार का मददगार बन सकते हैं। राज्यसभा में जेडीयू के 13 सांसद हैं।

अजित से सबने क्यों कर लिया किनारा, अब क्यों कन्नी काट रहे सपा से?

नई दिल्ली। एक समय पश्चिमी उत्तर प्रदेश का सियासी समीकरण ही कुछ ऐसा था कि अजित सिंह की पूछ परख सभी पार्टियों में थी। अपने पिता और पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह की छवि के कारण अजित सिंह की पार्टी का यूपी के जाटों पर अच्छा खासा असर था। लेकिन समय के साथ अब परिस्थितियां यहां तक बदल चुकी है कि अजित को राज्यसभा में पहुंचने के लिए न सिर्फ लगभग सभी राजनीतिक दलों के दरवाजे खटखटाने पड़े बल्कि इसके बदले उन्हे गठबंधन की शर्तें भी सुननी पड़ी।  अजित सिंह अगले वर्ष होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए फिर अपने लिए सहयोगी तलाश रहे हैं। अजित के ट्रैक रिकॉर्ड ने उन्‍हें ऐसा रुख अपनाने को विवश किया है।

बीजेपी ने क्यों नहीं लिया अजित का साथ- अजित सिंह पश्चिमी यूपी में काफी प्रभावशाली नेता हैं और जाट वोटबैंक पर उनकी काफी पकड़ है। यही नहीं अब तक लोकसभा और विधानसभा चुनावों में आरएलडी का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन बीजेपी के साथ ही हुआ है। लेकिन मुजफ्फरनगर दंगों के बाद जाट वोटर बीजेपी के साथ आ गए, जिसका नतीजा पिछले लोकसभा चुनाव में देखने को मिला था। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि ऐसे में अब बीजेपी को जाट वोटरों के लिए आजित सिंह की जरूरत नहीं रही।

अजित से सबने क्यों कर लिया किनारा, अब क्यों कन्नी काट रहे सपा से?

2009 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी के साथ रहने पर आरएलडी के5 सांसद निर्वाचित हुए थे और 2002 के विधानसभा चुनाव में उसके 14 विधायक जीते थे। जाट वोटरों पर पकड़ के लिए जहां केंद्रीय कृषि राज्यमंत्री डॉ. संजीव बालियान लगातार सक्रिय हैं तो स्थानीय स्तर पर भी नेताओं की फौज इस बिरादरी के हिसाब से लगाई गई है।

मायावती ने बनाई दूरी- मुलायम के साथ बढ़ती नजदीकियों से पहले अजित सिंह बसपा से हाथ मिलाना चाहते थे,लेकिन मायावती इसके लिए कतई तैयार नहीं हुईं। गौरतलब है कि बीएसपी का मजबूत कैडर जाटव वोटबैंक का पश्चिमी यूपी में जाट वोटर्स के साथ छत्तीस का आंकड़ा है और दोनों कभी साथ आ ही नहीं सकते। यही नहीं राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि इस क्षेत्र में गैर जाट वोटों का ध्रुवीकरण भी होता है और अजित सिंह को साथ लाने से मायावती को गैर जाट वोटों से हाथ धोना पड़ सकता है।

कांग्रेस को भी ऐतराज- चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर को कमान देने के बाद भी इस समय यूपी में कांग्रेस सबसे ज्यादा कमजोर स्थिति में है। कमजोर स्थिति में होने के बावजूद भी काग्रसे को आरएलडी के साथ गठबंधन कोई दिलचस्पी नहीं है। यही कारण है कि जब सोनिया गांधी ने अजित सिंह के राज्यसभा भेजने के बदले 2017 में गठबंधन के प्रस्ताव को एक सिरे से खारिज कर दिया।

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सपा को क्यों है जरूरत- यूपी विधानसभा चुनाव की सरगर्मी तेज होते ही सियासी गठजोड़ भी होने लगे हैं। घबराई सपा ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अपनी पकड़ मजबूत करने के लिए आरएलडी से तालमेल बिठाना शुरू किया है। यूपी में सत्ता विरोधी लहर के कारण इस बार समाजवादी पार्टी की हालत विधानसभा चुनाव में ज्यादा अच्छी नहीं बताई जा रही है। ऐसे में सपा को निश्तित रूप से सहयोगी की तलाश है। लेकिन मुजफ्फरनगर दंगों के बाद वेस्टर्न यूपी में मुसलमानों और जाटों के बीच जो दूरी बढ़ी है, उसमें समाजवादी पार्टी को अजित सिंह सिंह से गठबंधन करने में फायदे के बजाय घाटा ही दिख रहा है।

हालांकि 2012 के विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी बगैर अजित सिंह के सहयोग से पश्चिमी यूपी को फतह कर चुकी है लेकिन उसके पक्ष में जीत का समीकरण मुसलमान और गैर जाट वोटों का ध्रुवीकरण ही बना था। 403 सदस्यीय यूपी विधानसभा में इस समय अजित सिंह की पार्टी के महज 9 विधायक हैं जबकि संसद में उनका एक भी सांसद नहीं है। जाटों की बहुलता वाले यूपी के 12 जिलों की 60 विधानसभा सीटों में उनकी पार्टी निर्णायक भूमिका में है। ऐसे में समाजवादी पार्टी अजित सिंह के असर को पूरी तरह से नकाराने को तैयार नहीं है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि अजित का समर्थन निर्णायक भूमिका निभा सकता है।

2017 के विधानसभा चुनाव में सपा इस गठबंधन को अपना ट्रंपकार्ड मान कर चल रही थी। पर अब अजीत सपा से कटते दिख रहे है। अजित सिंह के साथ जुड़ने में सपा को न सर्फ पश्चिमी उत्तर प्रदेश में चुनावी फायदे की उम्मीद है बल्कि इस पूरे क्षेत्र में बीजेपी के बढ़ते प्रभाव को किसी तरह कम करना या गायब करना। इस क्षेत्र में बीजेपी की ओर से वोटों के धुव्रीकरण की संभावित कोशिश पर पानी फेरने के साथ मुस्लिम-यादव के साथ जाट और गुज्जर समुदाय को भी अपने पाले में करना चाहती है।

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राजनीतिक विश्लेषकों का यह भी मानना है कि इस गठबंधन के बनने से चुनाव में बीजेपी के साथ बसपा का भी चुनावी गणित गड़बड़ा सकता है। दोनों दलों के साथ आने से सपा का मुस्लिम और आरएलडी के जाट वोटरों का गठजोड़ बनता है,तो पश्चिमी उत्तर प्रदेश की 145 विधानसभा सीटों पर सपा-रालोद की राह आसान हो सकता है। गौरतलब है कि पिछले दो चुनावों में सपा और बसपा के बीच करीब चार फीसदी वोट के अंतर पर हार जीत हुई है, जबकि आरएलडी करीब तीन फीसदी वोट हासिल करने में सफल रहा है। सपा के परंपरागत यादव वोटर पश्चिम में न होने के कारण सपा गुर्जर-मुस्लिम समीकरण से बसपा और भाजपा का मुकाबला चाहती है।

जबकि दूसरी तरफ दलित-मुस्लिम समीकरण बनाकर बसपा बीजेपी के पक्ष में एकतरफा ध्रुवीकरण को खत्म करना चाहती है। बसपा की मंशा यह है कि वह इस समीकरण के सहारे बीजेपी से सीधी टक्कर में दिखाई दे, जिससे मुस्लिम एकतरफा उसके पाले में खड़ा हो। अब तक बीजेपी लगातार यही कहती रही है कि उसका मुख्य मुकाबला सपा से ही है।

क्यों कट रहे हैं अजित- दादरी की नई फोरंसिक रिपोर्ट के बाद अखलाक के घर में गौमांस होने की पुष्टि के बाद अजीत सिंह भी सपा से कुछ अलग अलग दिख रहे हैं। गौरतलब है कि गौमांस की पुष्टि होने के बाद जाटों के बीच सपा सरकार से नाराजगी है। अजीत सिंह अपनी पार्टी के अस्तित्व को लेकर पहले से ही चिंता में हैं और वो खतरा मोल नहीं लेना नहीं चाहते। जाहिर है अजित सिंह के इस कदम से पश्चिम यूपी में बचा-खुचा जनाधार भी आरएलडी से दूर हो जाए। ऐसे में सपा से संभावित गठबंधन खटाई में पड़ता दिख रहा।

जाट आंदोलन का होगा असर- हरियाणा में आरक्षण के लिए जाटों का आंदोलन पूरे हरियाणा में फैलने के साथ ही इसकी धमक पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भी महसूस होने लगी है। जाट समुदाय के लोग उत्तर प्रदेश में भी आरक्षण को लेकर खुलकर सामने आ गए हैं। भारतीय किसान यूनियन के राकेश टिकैत द्वारा नतीजा भुगतने की धमकी की सीधा अर्थ अगले वर्ष होने वाले विधानसभा चुनावों में इस आंदोलन के होने वाले प्रभाव से है।

पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाट बहुल क्षेत्रों में विधानसभा की करीब 136 सीटें आती हैं और इस क्षेत्रों में मुसलमानों की जनसंख्या भी अच्छी खासी है है। 2012 के विधानसभा चुनाव में इस इलाके की 136 में से 26 सीटों पर मुसलमान उम्मीदवार जीते थे। जैसे-जैसे राज्य में जाट बनाम गैर जाट का मुद्दा गर्माता जा रहा है विभिन्न राजनीतिक दलों को सांप्रदायिक रूप से संवेदनशील पश्चिमी उत्तर प्रदेश को लेकर अपनी आगामी चुनावी रणनीति में आमूलचूल परिवर्तन करना पड़ेगा।

क्यों नहीं है अजीत सिंह पर विश्वास- गौरतलब है कि अजीत सिंह यूपी में सभी पार्टियों के साथ कभी न कभी साझेदारी कर चुके हैं और ऐसे में गठबंधन का भविष्य पक्का नहीं है और यही बात उनके लिए मुसीबतें खड़ी कर रही है। 2002 में यूपी में मायावती के साथ रहे अजीत सिंह ने 2004 में समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन किया और 2009 वो बीजेपी के साथ चुनाव लड़े। 2011 में वो यूपीए में शामिल हो गए। 2014 के लोक सभा चुनाव में भी कांग्रेस ने उनके लिए आठ सीटें छोड़ी थीं- लेकिन न तो उनकी सीट बची न बेटे की। इन हालातों में आरएलडी से गठबंधन करने की हिम्मत कोई नहीं जुटा पा रहा।